कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पार्टी की बागडोर संभाले 4 महीने का समय बीता है और अभी सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या वे गांधी- नेहरू खानदान के महाराजा दलीप सिंह साबित होंगे ? इतिहास का सिंहावलोकन किया जाए तो सामने आता है कि अतीत में अनेकों ऐसे महान शासक हुए जिनकी संतानें उतनी योग्य नहीं हुई और उनके शासन का पतन हुआ। अंग्रेजों, पुर्तगालियों व पठानों को हर मोर्चे पर शिकस्त देने वाले शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र महाराजा दलीप सिंह उन्हीं कमजोर संतानों के प्रतीक हैं जो ब्रिटिश शासन के सामने कूटनीतिक, रणनीतिक व राजनीतिक रूप से परास्त हुए। आज कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में कहीं न कहीं महाराजा दलीप सिंह की छवि दिखनी शुरू हो चुकी है, जिसे तत्काल बदलने की जरूरत है। यह बात चुनावी हार-जीत की नहीं है कि किस तरह राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद की कुर्सी संभालने के बाद गुजरात के बाद पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में करारी शिकस्त का स्वाद चखा। आजकल देखने में आ रहा है कि गाहे-बगाहे किसी राजनीतिक दल व नेता की सफलता-असफलता की कसौटी को केवल चुनावी प्रदर्शन को ही मान लिया गया है, जो गलत है। अगर ऐसा होता तो आज महात्मा गांधी, भीमराव रामजी आंबेडकर, डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं के नाम इतने आदर से न लिए जाते जो चुनावी अंकगणित के इतने बड़े विशेषज्ञ तो नहीं थे परंतु अपनी परिपक्वता के लिए आज भी देश की राजनीति के मार्गदर्शक बने हुए हैं। वैसे तो राहुल गांधी के पूरे राजनीतिक जीवन में एक-आध अवसर को छोड़ कर इस परिपक्वता के दर्शन नहीं हुए परंतु एक राष्ट्रीय दल कांग्रेस के सर्वेसर्वा होने के नाते उनमें जो समझ विकसित होनी चाहिए थी उसकी अभी झलक दिखाई नहीं पड़ी। पार्टी के अन्य पदों पर रहते हुए उन्होंने जो भी भूलें की हों वह क्षम्य हैं क्योंकि उसका असर कांग्रेस पर इतना नहीं पड़ना था परंतु अब अध्यक्ष होने के नाते उन्हें संभल-संभल कर चलने व शब्दों को चबा- चबा कर उगलने की जरूरत है जिसका अभी अभाव खल रहा है। हाल ही में हुए दलित आंदोलन के दौरान उनका व्यवहार देश को गुमराह करने वाला व अपरिपक्व ही कहा जा सकता है। उन्हें आंदोलन कारियों को समर्थन देते समय उनसे शांति बनाए रखने की अपील करनी चाहिए थी परंतु उन्होंने ट्वीट कर कहा कि भाजपा-आरएसएस दलित विरोधी हैं और यह गुण उनके डीएनए में है। भाजपा से उनके लाख मतभेद व राजनीतिक भेद हो सकते हैं परंतु यह अवसर संकीर्ण राजनीति करने का नहीं था। उनके इस ट्वीट ने सड़कों पर उतरे लाखोंकरोड़ों प्रदर्शनकारियों को एक तरह से उकसाने का काम किया। देश के सबसे पुराने एक राष्ट्रीय दल का अध्यक्ष होने के नाते उनका संवैधानिक दायित्व बनता था कि वे लोगों को सर्वोच्च न्यायालय के एससी-एसटी अधिनियम पर दिए फैसले की भावना को खुद समझते और लोगों को भी समझाते और सरकार से अपील करते कि वह अदालत में पूरी दृढ़ता के साथ इस अधिनियम के साथ खड़ी हो । परंतु उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि अदालत ने इस अधिनियम को निरस्त कर दिया है। एक राष्ट्रीय नेता जब सुधार को निरस्त बताता है तो यह या तो उनकी अपरिपक्वता का उदाहरण हो सकता है या फिर राजनीतिक मौकापरस्ती कायह कोई पहला अवसर नहीं है जब राहुल गांधी ने असत्य तथ्यों का सहारा लिया हो। याद हो कि गुजरात विधानसभा चुनाव में उन्होंने राज्य में बेरोजगार युवाओं की संख्या 50 लाख बताई और चार घंटे बाद अगली ही जनसभा में इसे घटा कर 20 लाख कर दिया।
बड़े मौकों पर अकसर राहुल गांधी ने अपरिपक्कता का परिचय दिया